भारत दुर्दशा की संवेदना - भारत की दुर्दशा तथा उसके कारण [ Bharat Durdasha Ke Karan ]



 भारत दुर्दशा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा 1875 ई . में रचित एक लघु नाटक है जिसमें उनकी नवजागरण चेतना और राष्ट्रीय बोध विस्तृत रूप से अभिव्यक्त हुआ है । इस प्रतीकात्मक नाटक में भारतेन्दु ने भारत की दुर्दशा के सभी पक्षों को कुछ काल्पनिक प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट किया है ।

भारत की दुर्दशा तथा उसके कारण 

भारत दुर्दशा में भारतेन्दु ने बताया है कि वर्तमान भारत किस प्रकार विनाश के मार्ग पर बढ़ रहा है । इसकी आर्थिक , राजनीतिक और सामाजिक संरचनाएँ पूर्णतः खडित हो गयी है और सबसे अधिक चिन्ता की बात यह है कि भारत के निवासी इस दुर्दशा को दूर करने के लिये प्रतिबद्ध भी नहीं दिखते । इस समस्या को सर्वागीण समीक्षा करते हुए उन्होंने चुन - चुनकर उन कारणों की खोज की है जिन्हें दूर करना भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिये जरूरी हो गया है ।

भारत की दुखद स्थिति के लिये बाह्य और आंतरिक दोनों कारण जिम्मेदार

 भारतेन्दु के अनुसार हमारी इस दुखद स्थिति के लिये बाह्य और आंतरिक दोनों कारण जिम्मेदार हैं । उन्होंने भारत दुर्दैव की कल्पना में संकेत किया है कि वह अंग्रेजी सभ्यता का प्रतीक है जिससे स्पष्ट होता है कि अंग्रेजी राज और उसकी शोषणकारी नीतियाँ हमारी इस दशा के कारणों में शामिल है । किन्तु , भारतेन्दु उन लोगों में से नहीं हैं जो अपनी समस्याओं का ठीकरा दूसरों पर फोड़कर शांत हो जाते है । उनका ईमानदार आत्म - मूल्यांकन इस तथ्य साक्षी है कि हमारी दुर्दशा के ज्यादा बड़े कारण हमारे भीतर ही निहित हैं । ऐसे मुख्य कारण है- धर्म , संतोय , आलस्य , मदिरा , अज्ञान तथा रोग इत्यादि ।

धर्म का कर्मकाण्डीय रूप हमारी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण 

 धर्म ने हमें ऐसा दर्शन दिया जिससे सब लोग स्वयं को ब्रह्म समझने लगे और स्नहशून्य हो गए । इतना ही नहीं , शैव - शाक्त आदि मतों ने सांप्रदायिकता पैदा की । जातीय संरचना में जातिवाद को पैदा किया और बाल - विवाह तथा विधवा विवाह निषेध जैसी स्थितियों ने सामाजिक गतिशीलता को भंग कर दिया । धार्मिक अंधविश्वास ने परदेस यात्रा से रोककर हमें कप - मण डूक बना दिया है- दिखें

" शैव शाक्त वैष्णव , जनक मत प्रगटि चलाए

  जालि अनकन करि नीच अस ऊंच बनायो । " 

धर्म का कर्मकाण्डीय रूप हमारी दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है किना संतोष और आलस्य भी कमतर नहीं हैं । संतोष व्यक्ति को निष्क्रिय और प्रयत्नहीन बना देता है । भारतेन्दु ने तुलसीदास ( ' कांक नृप होउ हमें का हानी ' ) व मलूकदास ( ' अजगर करे न चाकरी , पंछी कर न काम ' ) के कवनों का जिक्र तो किया ही है . एक व्यंग्यात्मक गजल भी इस संबंध में रची है 

" दुनिया में हाथ - पैर हिलाना नहीं अच्छा 

   मर जाना पै उठके कहीं जाना नहीं अच्छा " 

मदिरा और अंधकार ने भी भारत का पर्याप्त नुकसान किया

इसके अतिरिक्त मदिरा और अंधकार ने भी भारत का पर्याप्त नुकसान किया है । उच्च से लेकर निम्न वर्ग तक सभी में मदिरा की महिमा है और इस कारण देश की बहुत सारी आधिक और मनोवैज्ञानिक क्षमता नष्ट हो जाती है । भारतेन्दु ने व्यंग्य करते हुए बताया है कि वर्तमान समय में कोई चाहे धर्माधीश हो , बुद्धिजीवी हो , वकील हो या ईश्वर ही क्यों न हो , सभी मदिरा के भक्त हैं । वे व्यग्यपूर्वक कहते हैं

 " मदवा पोले पागल , जीवन बीत्या जात ,

   वितु मद जगत सार कछु नाहि , मान हमारी बात । "


भारत दुर्दशा के अन्य कारण

 इन मुख्य कारणों के साथ भारतेन्दु ने कुछ गौण कारणों का भी उल्लेख किया है जो भारत की दुर्दशा के लिये जिम्मेदार हैं । अपव्यय , अदालत , फैशन , सिफारिश का पत - निगम के साथ अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाले कारण बताया गया है तो विद्या की चरचा फैल चली . सबको सब कुछ कहने - सुनने का अधिकार मिला , देश - विदेश से नई - नई विद्या और कारीगरी आई । तुमको उस पर भी नहीं सोधी बातें , भाँग के गोले ग्रामगीत . वही बाल्यविवाह , भूत - प्रेत की पूजा , जन्मपत्री की विधि ! वही थोड़े में संतोष गम हाँकन में प्रीति और सत्यानाशो चाल ! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा !

 प्रसंग - 

 भारत ! कम - से कम अपने अस्तित्व को तो पहचाना । पहचानो तो सही . तुम क्या थे , और अब क्या हो गए हो । देखो पश्चिम की ओर आधुनिक ज्ञान और विज्ञान रूपी सूर्य ने अपना प्रकाश बिखरना शुरु कर दिया है । अगर तुम ओजों का राज्य पाकर भी नहीं जागे और अब भी तुमने अपने आपको नहीं संभाला तो यह बुरा होगा । अब तो भारत - भारतेश्वरी ने भारतीय प्रजा को पहचान लिया है । अब चारों ओर विद्या का प्रकाश विकीर्ण हो रहा है । आज भारत में देश - विदेश से नई दस्तकारी और नई कलाएँ आ रही है । तुम तो आज भी सीधी - साधी बातों में उलझे हो । बस , भांग चढ़ाते हो और लम्बी तान के सोते रहते हो । बहुत हुआ तो ग्रामीण लोकगीतों में नाच - कूदकर वक्त बार्बद कर लिया । आज तुम्हें बाल - विवाह पसंद है । आज भी तेरा भूत - प्रेत की पूजा में मन लग रहा है । वह जन्मा - पत्री , टोने - टोटकों में अपनी बीमारी का इलाज ढूँढ रहा है । जो थोड़ा - बहुत मिल जाए . उसी में संतुष्ट है । चाल - चौपालों में गप हाँकने के सिकाय तुम्हें कोई काम नहीं । वहीं वहीं बैठा हुआ उल्टी - सीधी चाल चलता रहता है । हाय ! भारत तुम कितनी दुर्दशा में जो रहे हो ।


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