प्रकृति से प्रेरणा - निबंध हिंदी में [ Prakriti Se Prerana Nibandh In Hindi ]


नमस्कार दोस्तों, जैसा कि आप मे से ज्यादातर लोग यह जानते हैं कि प्रकृति हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है और विश्व पर्यावरण दिवस तथा अन्य किसी भी दिवस में कई स्थानों में तो प्रकृति के लिए जागरूकता पैदा करने के लिए भाषण और निबंध की प्रतियोगिता आयोजित की जाती हैं। फिर ऐसे में उन प्रतियोगिताओं में ऐसा क्या अलग लिखे और क्या बोलें की सिर्फ आप ही पहले विजेता घोषित हो सके । इसी विषय को लेकर आप हम आपको प्रकृति से प्रेरणा निबंध का एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं । आप इससे पढ़ कर अपने नए विचार बना सकते हैं और अपने से लिखने वाले निबंध या बोलने वाले भाषण में कहीं न कही स्तेमाल कर सकते हैं । तो आइये देखते हैं 

प्रस्तावना

घने वृक्षों के समुदाय को देखकर वह यकायक चिल्ला उठी- " आह कितना मनोरम दृश्य है ? " वृक्षों की भीड़ को देखकर मन हरा - भरा हो जाता है , जबकि मनुष्यों की भीड को देखकर जी घबरा उठता है और हम भाग कर खुली हवा में जाना चाहते हैं । आप तुरन्त सहमति प्रकट करते हुए कहेंगे कि प्रकृति का उन्मुक्त वातावरण किसको नहीं सुहाता है ? प्रकृति के वन , वृक्षों , उन पर लगे हुए फूलों की सुगंध , उन पर बैठे पक्षियों का कलरव मन को निहाल कर देता है । ऐसा प्रतीत होता है कि मानव साहचर्य की अपेक्षा प्रकृति का साहचर्य हमारे स्वभाव के अधिक अनुकूल है । हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार प्रेमचन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में का स्थान है । हम जब बाहर की घुटन , ऊब , दुर्गन्ध एवं कुण्ठा भरे जीवन से ऊब जाते हैं , तब खुली हवा पाने के लिए किसी वन , उपवन अथवा उद्यान में जाना चाहते हैं , उसी प्रकार जीवन की विषमताओं एवं विडम्बना से युक्त काव्य की ऊब एवं घुटन मिटाने के लिए हम आदर्शवाद की ओर देखते हैं । 

प्रकृति का अनुकरण

कहने का तात्पर्य यह है कि माता की गोद की भाँति प्रकृति हमारे लिए सुख - चैन - प्रदाता एवं संकटमोचन क्रोड का विधान करती है । वह सचमुच परमात्मा की कलाकृति है । उसी ने मानव को कला की प्रेरणा प्रदान की है । प्लेटो , अरस्तू आदिक प्राचीन दार्शनिक काव्यशास्त्रियों ने कला को प्रकृति का अनुकरण बताया है । प्रकृति में सुनाई देने वाली विविध ध्वनियों के आधार पर ही संगीत के सप्तस्वरों का विधान एवं नामकरण किया गया है । कवीन्द्र रवीन्द्र के शब्दों में " प्रकृति ईश्वर की शक्ति का क्षेत्र है और जीवात्मा उसके प्रेम का क्षेत्र है । "

प्रकृति से अनुशासन

प्रकृति में प्रत्येक कार्य एक विशेष नियमानुसार होता है । हमारा समस्त भौतिक विज्ञान उसके नियमों के उद्घाटन का विनम्र प्रयास है , तथा मानव की आचार संहिताएं उसकी नियमित एवं अविचल प्रक्रियाओं के साक्षात्कार के महोत्सव का दिव्य संगीत हैं । प्रकृति हमें अनुशासन में रहने का पाठ पढ़ाती है । प्रकृति एक अनुशासन में चलती है और एक शिक्षिका की भाँति मानव को भी अनुशासन की शिक्षा देती है । ऋतुचक्र एक निश्चित अनुशासन का अनुवर्तन करता है । ' हुकुम बिना न झूले पाता ' वाली उक्ति प्रकृति में व्याप्त अनुशासन की ही ओर इंगित करती है ।

प्रकृति के नियम

प्रकृति में शून्य के लिए स्थान नहीं हैं । जो दोगे , उसका स्थान उसी वस्तु से भर जाएगा जो तुमने दी है । महात्मा कबीर का कथन द्रष्टव्य है--

ऋतु बसंत नायक भया , हरष दिया द्रुमपात 
ताते कब पल्लव भया , दिया मूर नहि जात ।

प्रकृति का एक सामान्य नियम है कि प्रकृति के नियमों का पालन करके हम उस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । नदी के ऊपर पुल बनाने के लिए आवश्यक है कि हम उसके प्रवाहयुक्त जल को रोकें नहीं अपितु उसको बहने के लिए अन्य मार्ग का निर्माण कर दें । मानव - जीवन में भी हम देखते हैं कि विरोध एवं संघर्ष की अपेक्षा , प्रेम , सहयोग एवं सहयोग का मार्ग समरसता का हेतु बनता है । जब कभी और जहाँ कहीं , मनुष्य प्रकृति पर शक्ति के बल पर अधिकार करने का प्रयत्न करता है अथवा उसके विनाश का मार्ग अपनाता है , तब उसको मुँह की खानी पड़ती है और संकटों का सामना करना पड़ता है । प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । वर्तमान में ऋतु - विपर्यय की घटनाएं , मौसम की भविष्यवाणियों की निरर्थकताएं यह सिद्ध करती हैं कि मानव के कार्यकलाप प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जा रहे हैं । उसने समस्त प्राकृतिक वातावरण एवं पर्यावरण को प्रदूषण एवं विनाशलीला से भर दिया है । प्रकृति बार - बार कहती है कि बाह्य एवं अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए तथा जीवन को त्रासदी मुक्त करने के लिए नियम - पालन एवं अनुशासन के मार्ग पर चलने का अभ्यास करो । किसी ने ठीक ही कहा है कि शक्ति उन्हीं को प्राप्त होती है जो प्रकृति के क्षेत्र में साधना करते हैं , जो बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करते हैं , जो नवीन मर्यादाओं की स्थापना के पूर्व स्थापित मर्यादाओं के पालन में सक्षम बनते हैं । लीला पुरुषोत्तम को पूर्व जन्म में मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में अनेक वर्षों तक तपस्वी का वेश धारण करना पड़ा था ।

सूर्योदय एवं चन्द्रोदय से लेकर फूलों फलों के विकास तक की समस्त प्रक्रियाएँ । विशिष्ट नियमों के अन्तर्गत कार्य करती हैं । ये नियम शाश्वत एवं अविचल हैं । प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव के जीवन के संदर्भ में भी इसी कोटि के कतिपय नियम हैं , जो मनुष्य उनको जानता है और मानता है , उसको विश्व जान लेता है और प्रेरक रूप में उसको मान्यता प्रदान करता है । अंग्रेजी के विश्व विश्रुत नाटककार कवि शैक्सपीयर ने लिखा है कि , The poem hangs on the berry bush , when comes the poet's eye अर्थात् कवि की आँख को झरबेरी की झाडी में कविता के दर्शन होते हैं । 

प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भण्डार

आप समझ लीजिए कि प्रकृति अपरिमित ज्ञान का भण्डार है , उसके पत्ते - पत्ते पर शिक्षापूर्ण पाठ हैं , उसके कण - कण में प्रेरणा समाहित है । उनका साक्षात्कार करने के लिए बाहर के चर्म चक्षु नहीं , भीतर की हृदय की आँखें चाहिए । प्रकृति अपना द्वार उसके लिए खोलती है जो धैर्यपूर्वक अनवरत साधना करते हैं ।
कवि रहीम ने कहा है ---

धीरे - धीरे रे मना , धीरज से सब होय ।
माली सींचै सौ घड़ा , रितु आए फल होय ।

आप धैर्यपूर्वक अपने कर्तव्य - पथ पर चलते रहिए । परिणामों के प्रति उतावले मत बनिए । सफलता आपको अवश्य मिलेगी ।

" प्रकृति के चरण - चिह्नों पर चलो । धैर्य उसका रहस्य है ।

( इमर्सन )

प्रकृति से प्रेरणा

आपने समुद्र - तट के दर्शन अवश्य किए होंगे । समुद्र - तट पर किसी स्थान पर समुद्र की ओर निकलती हुई चट्टान को ध्यान से देखिए । विशाल समुद्र की लहरें व्यालों की तरह फन फैलाए हुए उससे टक्कर मारती हैं और छितराकर समुद्र में विलीन हो जाती हैं , परन्तु दृढ़ चट्टान अपने स्थान पर ज्यों की त्यों अप्रभावित बनी रहती है । साध्य जिज्ञासु को वह यह पाठ पढ़ाती रहती है कि अपने स्थान पर , अपने कर्तव्य - पथ पर दृढ़तापूर्वक जमे रहो । विघ्न - बाधाएं कितनी भी भयंकर एवं वृहदा कार हों , आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगी और स्वयं ही विलीन हो जाएगी । 

इसी प्रकार नदी , नाले , झरने आदि अपने किनारे के छोटे एवं दुर्बल लता - गुच्छ को नष्ट करते रहते हैं , परन्तु सुदृढ वृक्षों को वे बाढ आने पर भी नष्ट नहीं कर पाते हैं । प्रकृति का मन्तव्य स्पष्ट है - विघ्न - बाधाओं का सामना धैर्यपूर्वक सहन करो , दृढता एवं धैर्य बनाए रखो । सफलता क्यों नहीं मिलेगी ।

उपसंहार

आप विश्वासपूर्वक प्रकृति के निज जाइए और उसका सदेश सुनिए । आप देखेंगे कि आपको अपने कार्य एवं लक्ष्य के प्रति नवीन दिशा एवं दृष्टि प्राप्त होगी । अपेक्षित है दृढ़ता , धैर्य और लक्ष्य के प्रति समर्पण भाव । प्रकृति में न धोखा है और न पक्षपात । उसके द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हुए हैं । प्रकृति में कहीं भी विकृति नहीं होती है ।


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